सोनाक्षी सिन्हा की नूर, बेनूर सी लगती है। ऐसा क्यों लगता है? ऐसा लगने के कई कारण हैं, पहला कारण तो नूर रॉय चौधरी, जिस किरदार को सोनाक्षी सिन्हा निभा रही हैं, पर हद से अधिक जोर दिया गया।
नूर रॉय चौधरी के व्यक्तिगत जीवन में दो मुख्य समस्याएं हैं, एक तो नौकरी में मनचाहा काम करने को नहीं मिलता और दूसरा कोई प्रेमी नहीं। असल में नूर रॉय चौधरी कुछ ऐसी ख़बरों को कवर करना चाहती है, जो समाज से सारोकार रखती हों। पर, नूर का बॉस चाहता है कि फिल्मी सितारों की कवरेज की जाए।
नूर के हाथ एक सनसनीखेज ख़बर लग भी जाती है। लेकिन, बॉस को ख़बर में कोई दिलचस्पी नहीं है। उधर, नूर का दोस्त ख़बर को ब्रेक कर देता है। यह ट्विस्ट भी फिल्म में बुझते हुए दीये की फड़फड़ाहट से ज्यादा कुछ नहीं है।
शुरूआत में नूर रॉय चौधरी का मोनोलॉग इतना लंबा है कि दर्शक इंटरवल का इंतजार करने लगते हैं, ताकि कुर्सी और दिमाग को कुछ समय आराम करने दिया जाए। इसको छोटा करने की जरूरत थी, और थोड़ा सा रोमांच भरा बनाने की।
हताश नूर भारत छोड़ कर अपने दोस्त के साथ विदेश निकल जाती है और भारत आने पर सब कुछ नूर रॉय चौधरी के अनुसार होने लगता है, जो पूरी तरह से पचाना मुश्किल है।
नूर रॉय चौधरी के फन (कौशल) को गीत संगीत का फन (मजा) मार डालता है। पत्रकारिता एक संजीदा विषय है, जिसको समझने में सुनील सिप्पी पूर्ण रूप से असफल हुए हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो नूर सुनील सिप्पी की कल्पित पत्रकार हैं, जो वास्तविक पत्रकारों से मेल नहीं खाती। हालांकि, फिल्म के अन्य पक्ष काफी अच्छे हैं, चाहे वो फिल्मांकन हो या बैकग्राउंड संगीत।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सोनाक्षी सिन्हा, मनीष चौधरी, पूरब कोहली, एमके रैना, कनन गिल, शिबानी दांडेकर और स्मिता तांबे का अभिनय भी प्रशंसनीय है। अफसोस कि कलाकारों का प्रशंसनीय अभिनय भी नूर को बेनूर होने से बचा नहीं सका।
यदि आप मुम्बई शहर को मुम्बई में आए बिना बड़े पर्दे पर देखना चाहते हैं तो नूर आपके लिए एक अच्छी फिल्म हो सकती है क्योंकि फिल्म नूर में मुम्बई को काफी खूबसूरत तरीके से कैप्चर किया गया है।