सुलगते हुए मुद्दों पर फिल्म बनाना एक तरह से फायदे का सौदा होता है। लेकिन, यह सौदा हर बार मुनाफा देकर जाए, ऐसी कल्पना करना भी अच्छी बात नहीं। इससे पहले भी रवीना टंडन 2004 में फिल्म जागो के अंदर रेप पीड़ित बच्ची की मां का किरदार निभा चुकी हैं। बस फर्क इतना है कि उस फिल्म में रवीना टंडन इतनी ताकतवर नहीं थी, जितनी मातृ में हैं।
फिल्म मातृ में रवीना टंडन अपनी बेटी से बेहद प्यार करती है, जो गैंगरेप का शिकार हो जाती है। गैंगरेप करने वालों में मुख्यमंत्री का बेटा शामिल है। ऐसे में रवीना टंडन की बेटी को इंसाफ नहीं मिलता। ऐसे में रवीना टंडन अपने तरीके से इंसाफ लेने की सोचती है। लेकिन, शुरूआती हत्याओं के बाद कहानी रियल से रील लगने लगती है।
1990 के दशक की फिल्मों में ताकतवर का जुल्म और गरीब का बदला ही तो फिल्म की यूएसपी होता था। मातृ में भी कुछ ऐसा ही है। मगर, मातृ आपको सीट पर बंधे रहने के लिए विवश करने में असफल रहती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि रवीना टंडन ने अपने किरदार को पर्दे पर जीवंत करने के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया है। सच तो यह ही है कि रवीना टंडन ही फिल्म को संभालती हैं क्योंकि फिल्म की कहानी में नयापन बिलकुल नहीं है।
इसके अलावा फिल्म के अन्य कलाकारों अनुराग अरोड़ा, विद्या जगदाले और मधुर मित्तल ने भी अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है।
यकीनन, फिल्मकार अश्तर सैयद ने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है। लेकिन, फिल्मकार फिल्म को अंत तक रोमांचक बनाए रखने में चूक गए और कहानी चुनाव भी अच्छा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसी कहानियां पर्दे पर कई दफा दोहराई जा चुकी हैं।
फिल्म के संवादों में गाली गालौच और द्विअर्थी शब्दों का इस्तेमाल खुले मन से किया गया है, जो कहानी के अनुसार अटपटा नहीं लगता है। फिल्म का संगीतक पक्ष भी अधिक मजबूत नहीं है।
यदि आप रवीना टंडन के पक्के वाले प्रशंसक हैं, तो फिल्म मातृ देखना आपके लिए बुरा सौदा नहीं होगा। यदि आप फिल्मों में कुछ नयापन देखने के आदी हैं तो आपके लिए मातृ जैसा बुरा सौदा कोई नहीं हो सकता।