गुजरे जमाने की मशहूर अभिनेत्री आशा पारेख ने अपनी प्रतिभा के बलबूते अपना अलग मुकाम बनाया। विजय भट्ट ने उन्हें अपनी फिल्म से यह कह कर निकाल दिया था कि उनमें अभिनेत्री बनने के गुण नहीं है, लेकिन आशा ने उन्हें गलत साबित कर दिखाया।
आशा का जन्म दो अक्टूबर, 1942 को बेंगलुरू में एक गुजराती परिवार में हुआ था। इनकी मां मुस्लिम और पिता हिंदू थे। आशा का परिवार साई बाबा का भक्त था, जिसका प्रभाव उन पर भी पड़ा। आशा की मां छोटी उम्र से ही उन्हें शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा दिलाने लगीं थीं। कुशल नृत्यांगना आशा ने देश-विदेश में कई नृत्य शो भी किए। बचपन में आशा डॉक्टर बनना चाहती थीं, फिर उन्होंने आईएस अधिकारी बनने की सोची, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
पारेख ने अपने करियर की शुरुआत बतौर बाल कलाकार फिल्म ‘आसमान’ (1952) से की। एक कार्यक्रम में मशहूर फिल्म निर्देशक बिमल रॉय की नजर नृत्य करती आशा पर पड़ी और उन्होंने फिल्म ‘बाप-बेटी’ (1954) में आशा को पेश किया। फिल्म विफल रही और वह निराश भी हुईं, फिर भी उन्होंने कई फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम किया। बाद में अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कुछ समय के लिए उन्होंने फिल्मों से विराम ले लिया।
उन्होंने 16 साल की उम्र में फिर से फिल्मी दुनिया में कदम रखना चाहा। विजय भट्ट ने उन्हें ‘गूंज उठी शहनाई’ (1959) से यह कहकर निकाल दिया कि वह अभिनेत्री बनने लायक नहीं हैं। इसके आठ दिनों बाद निर्माता सुबोध मुखर्जी और निर्देशक नासिर हुसैन ने आशा को शम्मी कपूर के साथ ‘दिल देके देखो’ (1959) में काम करने का मौका दिया। यह फिल्म सफल रही और आशा रातोंरात मशहूर हो गईं। नासिर के साथ आशा के सबंध अच्छे बने रहे।
सैन ने आशा को लेकर कई मशहूर फिल्में जैसे ‘जब प्यार किसी से होता है’ (1961), ‘फिर वही दिल लाया हूं’ (1963), ‘तीसरी मंजिल’ (1966), ‘बहारों के सपने’ (1967), ‘प्यार का मौसम’ (1969) और ‘कारवा’ं (1971) बनाई।
पारेख की छवि जहां एक ओर ग्लैमरस हीरोईन की रही, तो दूसरी ओर राज खोसला ने उन्हें गंभीर किरदार निभाने का मौका दिया। आशा ने खोसला की तीन फिल्मों ‘दो बदन’ (1966), ‘चिराग’ (1969) और ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ (1978) में संजीदा किरदार निभाए। फिल्म ‘कटी पतंग’ के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार भी जीता। शक्ति सामंत, विजय आनंद, मोहन सहगल और जे.पी. दत्ता जैसे मशहूर निर्माताओं और निर्देशकों के साथ आशा ने काम किया।
आशा ने अपनी मातृभाषा गुजराती में भी फिल्में की। उनकी पहली गुजराती फिल्म ‘अखंड सौभाग्यवती’ बेहद सफल हुई थी। इसके अलावा पंजाबी ‘कंकण दे ओले’ (1971) और कन्नड़ ‘शरावेगदा सरदारा’ (1989) फिल्मों में भी उन्होंने काम किया।
फिल्मी करियर जब ढलान पर आया तो आशा ने नासिर हुसैन के कहने पर कई टीवी सीरियलों का निर्माण किया, जिनमें ‘पलाश के फूल’, ‘बाजे पायल’, ‘कोरा कागज’, व कॉमेडी सीरियल ‘दाल में काला’ उल्लेखनीय हैं।
जहां कई अभिनेत्रियां दिलीप कुमार के साथ काम करने का सपना देखती थीं, वहीं आशा को दिलीप कुमार बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे। इसलिए उन्होंने हर बार इस अभिनेता के साथ काम करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। अभिनेत्री साफ कह देती थीं कि वह दिलीप कुमार को पसंद नहीं करती हैं।
विवाह को लेकर आशा की आस पूरी नहीं हो पाई। वह अविवाहित हैं। उन्होंने किसी से प्यार किया और शादी के हसीन सपने भी देखे, लेकिन यह सपना पूरा नहीं हो पाया। आशा पारेख ने उस शख्स का नाम कभी नहीं बताया है।
आशा को 1992 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन्हें 2001 में फिल्म फेयर लाइफटाइम पुरस्कार और 2006 में अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फिल्म अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
वह 1998 से 2001 तक सेंसर बोर्ड की पहली महिला अध्यक्ष रहीं। आशा पारेख ने वेतन तो नहीं लिया, लेकिन सख्त रवैये के कारण उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने कई फिल्मों को पास नहीं होने दिया, जिसमें शेखर कपूर की फिल्म एलिजाबेथ भी शामिल है। आशा सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन की अध्यक्ष भी रही हैं।
अभिनेत्री के सम्मान में आशा पारेख अस्पताल भी खोला गया है। फिलहाल वह डांस एकेडमी कारा भवन पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं, जिसमें बच्चों को नृत्य प्रशिक्षण दिया जाता है। हाल ही में पथरी की बीमारी के चलते उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। उन्होंने जन्मदिन पर स्वस्थ रहने की इच्छा प्रकट की थी।
आशा पारेख आज भी अपनी सहेलियों वहीदा रहमान और हेलेन के करीब हैं और अक्सर दोनों के साथ घूमने-फिरने जाती हैं। रूपहले पर्दे की रानी रही आशा ने अपनी यादगार फिल्मों के बलबूते फिल्म जगत में एक अलग मुकाम हासिल किया है। हम आशा पारेख के जन्मदिन पर उनके लिए लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं।
-आईएएनएस/विभा वर्मा