Thursday, November 21, 2024
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सारे रिश्‍ते तोड़कर काम की तलाश में मुम्‍बई आए थे गीतकार योगेश, क्‍यों?

फिल्‍म आनंद का सदाबाहर गीत ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ लिखने वाले गीतकार योगेश गौड़ (Yogesh Gaur) बीते दिन अर्थात 29 मई 2020 को ‘जिन्‍दगी कैसी है पहेली’ को अलविदा कह गए।

बता दें कि टी सीरीज बैनर तले बनी फिल्‍म बेवफा सनम के सदाबाहर गीत ‘अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का’ में गीतकार योगेश का योगदान था।

लखनऊ शहर के रहने वाले योगेश ने फिल्‍म आनंद से पहले और उसके बाद काफी गीत लिखे। लेकिन, फिल्‍म आनंद के लिए लिखे गीत उनकी पहचान बन गए। हालांकि, जो गीत फिल्‍म आनंद का हिस्‍सा बने, वो गीत योगेश ने ‘सलिल दा’ के कहने पर किसी अन्‍य फिल्‍म के लिए लिखे थे।

दरअसल हुआ यूं कि सलिल दा के साथ योगेश की काफी बनने लगी थी। उनदिनों सलिल दा के पास वासु भट्टाचार्य आए और किसी फिल्‍म के लिए तीन गाने लिखने के लिए कहा। हालांकि, वासु भट्टाचार्य ने सलिल दा को गीतकार गुलजार के साथ काम करने को कहा था।

लेकिन, सलिल दा ने गुलजार की बजाय योगेश से तीन गीत लिखवाए और मुकेश की आवाज में उनको रिकॉर्ड करवाया। किसी कारणवश वासु भट्टाचार्य की फिल्‍म आगे न बढ़ सकी।

इस बीच उन तीन गीतों को एक फिल्‍म निर्माता एल बी लक्ष्‍मण ने खरीद लिया था। इनदिनों ऋष‍िकेश मुखर्जी अपनी अगली फिल्‍म आनंद के लिए कुछ गीतों की तलाश में सलिल दा से मिले और उनको योगेश के दो गाने फिल्‍म माहौल के अनुकूल लगे। लेकिन, एलबी लक्ष्‍मण ने ऋष‍िकेश मुखर्जी को केवल तीन में से कोई एक गीत चुनने को कहा। ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ को चुना, जो आनंद का सदाबाहर गीत बन गया।

दिलचस्‍प बात तो यह है कि इन तीन गीतों को लिखने के तुरंत बाद योगेश मुम्‍बई छोड़कर अपने करीबी दोस्‍त सत्‍येंद्र के साथ लखनऊ निकल गए थे और लखनऊ में काम धंधा सेट करने के बारे में सोचने लगे थे। इसका विशेष कारण था कि कम बजट की फिल्‍मों के लिए एक ही तरह के गाने लिख लिख योगेश ऊब चुके थे।

इसी शहर में योगेश का जन्‍म हुआ था और यहां पर ही योगेश को रिश्‍तेदारों को लेकर बेहद ख़राब अनुभव हुए थे। योगेश के पिता की मृत्‍यु उनके जीवन के सबसे ख़राब अनुभवों में से एक थी।

जब योगेश इंटर में दाखिल हो रहे थे कि उनके पिता का देहांत हो गया, जो 95 रुपये मासिक वेतन से चार परिवारों का पालन पोषण करते थे।मगर, पिता के देहांत के वक्‍त योगेश के परिवार के पास उनका अंतिम संस्‍कार करने का भी पैसा नहीं था। ऐसे में रिश्‍तेदारों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाए, लेकिन, उसके साथ प्रोनोट भी लिखवाया गया।इस बात ने योगेश को भीतर से तोड़ दिया और योगेश ने सभी रिश्‍तेदारों से तौबा कर ली।

पिता के जाने के बाद घर की जिम्‍मेदारियां योगेश के कंधों पर आ गई। योगेश ने शॉर्ट हैंडटाइपिंग सीखी, ताकि घर खर्च निकल सके। लेकिन, लखनऊ में बात न सकी। अंत योगेश ने मुम्‍बई आने का मन बनाया और उनके साथ उनके बचपन के दोस्‍त सत्‍येंद्र भी मुम्‍बई चल दिए।

मुम्‍बई में योगेश की बुआ के लड़के संवाद लेखक बृजेंद्र गौड़ रहते थे, जो उस समय काफी सक्रिय थे। अच्‍छे अच्‍छे निर्माता निर्देशकों के साथ काम कर रहे थे। मगर, मुम्‍बई पहुंचने के बाद योगेश और सत्‍येंद्र को एक और झटका लगा, जब बृजेंद्र गौड़ ने दोनों को कोई भाव नहीं दिया।

रिश्‍तेदारों की बेरुखी से परेशान योगेश को सत्‍येंद्र ने संभाला। सत्‍येंद्र ने योगेश को मुम्‍बई में रहकर फिल्‍मों में काम करने के लिए उकसाया। लेकिन, मुम्‍बई में रहने के लिए पैसा चाहिए था। ऐसे में सत्‍येंद्र ने पैसा कमाने के लिए कोई भी जॉब करने का फैसला लिया। सत्‍येंद्र ने फिल्‍म प्रोडक्‍शन हाउस में दर्जा चार कर्मचारी की नौकरी शुरू कर दी और योगेश के लखनऊ वाले घर के कुछ हिस्‍सा भाड़े पर चढ़ाने की सलाह दी।

सत्‍येंद्र की कमाई से मुम्‍बई में जीवन गुजारा होने लगा और योगेश ने मुम्‍बई स्थित फिल्‍म प्रोडक्‍शन हाउसों की खाक छानना शुरू किया। इसी दौरान योगेश की मुलाकात संगीत रॉबिन बैनर्जी से हुई। रॉबिन बैनर्जी की धुनों पर योगेश गीत लिखने लगे। सखी रॉबिन नामक फिल्‍म में योगेश के छह गीत चुने गए। इसके बदले में योगेश को डेढ़ सौ रुपये मतलब प्रति गीत 25 रुपये मिले और उधर, रॉबिन बैनर्जी को एक साथ नौ फिल्‍में ऑफर हुई। इस तरह योगेश का गीतकारी का सफर शुरू हुआ।

Image Source : Wikipedia,

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कुलवंत हैप्‍पी, संपादक और संस्‍थापक फिल्‍मी कैफे | 14 साल से पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं। साल 2004 में दैनिक जागरण से बतौर पत्रकार कैरियर की शुरूआत करने के बाद याहू के पंजाबी समाचार पोर्टल और कई समाचार पत्रों में बतौर उप संपादक, कॉपी संपादक और कंटेंट राइटर के रूप में कार्य किया। अंत 29.01.2016 को मनोरंजक जगत संबंधित ख़बरों को प्रसारित करने के लिए फिल्‍मी कैफे की स्‍थापना की।
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