भारत में प्रेम कहानियां बहुत हैं। प्रेम भरे नगमे पसंद किए जाते हैं। लेकिन, प्यार करने वाले पसंद नहीं किए जाते, स्वीकार नहीं किए जाते, और सम्मान के लिए उनकी हत्या कर दी जाती है। प्यार में अपनों के हाथों मारे जाने वाले सम्मान के लिए हत्या के दायरे में आते हैं। सम्मान के लिए हत्या तो भारत में सदियों से चली आ रही है, कोई नयी बात नहीं है। वैसे ध्यान से देखेंगे तो भारतीय सिनेमा में सम्मान के लिए हत्या का प्रयास तो हर प्रेम कहानी आधरित फिल्म में होता हैै, लेकिन, हर बार प्रेम कहानी में आशिक या प्रेमिका नायक नायिका के रूप में उभर कर सामने आ जाते हैं। लेकिन, सैरात में ऐसा नहीं होता। और सैरात की रीमेक धड़क में भी ऐसा नहीं होता।
धड़क और सैराट की तुलना करना सही नहीं होगा, क्योंकि सैराट एक क्षेत्रीय फिल्म है, और धड़क एक बॉलीवुड की आधी मसाला और आधी हकीकत फिल्म। बाॅलीवुड में जितना फिल्मों का निर्माण होता है, उतना मराठी सिनेमा में नहीं होता, या कहें किसी भी क्षेत्रीय सिनेमा में नहीं होता, और जब एक फिल्म क्षेत्रीय सिनेमा में बेहतर प्रदर्शन करती है, तो अन्य क्षेत्रों के लोग केवल प्रभाव में फिल्म को स्वीकार करते हैं। धड़क को एक स्वतंत्र फिल्म के रूप में देखना चाहिए। हालांकि, धड़क में बहुत ज्यादा हिस्सा सैराट से हू ब हू मेल खाता है। लेकिन, धड़क में करण जौहर का अमीर प्रोडक्शन हाउस धड़क को शुद्ध बॉलीवुड मसाला फिल्म बनाने के लिए अपने नायक नायिका को तमाम सुविधाएं देता है, जो सैराट में नायक नायिका को नसीब नहीं होती हैं। इसलिए सैराट की कहानी जमीं से अधिक जुड़ी हुई लगती है।
धड़क की शुरूआत बाॅलीवुड की मनोरंजक और व्यावसायिक नजरिये से बनायी फिल्मों की तरह होती है, और अंत क्षेत्रीय फिल्म सैराट की तरह होता है, जो दर्शक बर्दाशत नहीं कर पाते हैं, और सीट को एक निराशा के साथ अलविदा कहते हैं। इसका बड़ा कारण धड़क की नायक नायिका पार्थवी और मधु का दर्शकों के साथ भावनात्मक रिश्ता न बना पाना है। धड़क के अंत जैसी अख़बार की छोटी सी कतरन भी पाठक को हिलाकर रख देती है, मगर, धड़क का फिल्मांकन ऐसा करने से चूक जाता है। हिंदी सिने प्रेमियों को आदत नहीं कि अंत में वह अपने नायकों को हारते हुए और बुराई को जीतते हुए देखें।
जान्हवी का सौंदर्य और बेबाक तरह से बात करना दर्शकों को प्रभावित करता है। चुलबुले और रोमांटिक भावना भरे सीनों में ईशान का कोई जवाब नहीं है। आशुतोष राणा का अभिनय काम चलाउु लगता है। आशुतोष राणा के किरदार पर काम करने की जरूरत थी। भले ही सैराट को हर तरफ से सराहना मिली हो, लेकिन, हिंदी सिनेमा की विराटता और सिने प्रेमियों के फ्लेवर को समझते हुए क्लाईमेक्स में बदलाव की जरूरत थी। शशांक खेतान का निर्देशन बुरा नहीं है, लेकिन, कसावट मुक्त पटकथा और संवाद सिनेमा प्रेमियों को अपनी गिरफ्त में लेने से असफल रहते हैं। फिल्म का गीत संगीत और सिनेमेटोग्राफी वर्क काफी शानदार है, जो धर्मा प्रोडक्शन्स की फिल्मों की खासियत है।
कुल मिलाकर कहें तो सैराट को एक साइड पर रखकर उदयपुर के मधु और पार्थवी, जो घर से भागकर पश्चिमी बंगाल में खुशनुमा जीवन शुरू करते हैं, की प्रेम कहानी धड़क एक बार तो देखी जा सकती है, विशेषकर जान्हवी और ईशान की खूबसूरत जोड़ी के लिए, उदयपुर की खूबसूरती को निहारने के लिए, रोमांटिक गानों को बड़े पर्दे पर देखने के लिए, और पश्चिमी बंगाल के दादा की दरियादिली के लिए।
– कुलवंत हैप्पी