फिल्म समीक्षा : जूली 2 किंगफिशर का कैलेंडर नहीं बल्कि रंगीनियों में वीरानियों का मंजर है

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कुछ लोगों की जिंदगी पीड़ाओं में मुक्त नहीं होती, जीवन की अंतिम सांस तक। निर्देशक दीपक शिवदासानी की फिल्म जूली 2 की नायिका का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। अभिनेत्री जूली की जिंदगी में खुशी, उम्मीद और स्वतंत्रता उतना ही समय ठहरती है, जितना समय गरम तवे पर पानी की बूंदें।

सफल अभिनेत्री बन चुकी जूली एक ऐसी लड़की है, जो 13 साल की उम्र में बलात्कार का सामना करती है और 25 साल की उम्र तक एक नाजायज औलाद होने का बोझ उठाती है। जिस दुनिया से जूली का राबता है, उस दुनिया की पहचान के लिए जूली का संवाद, ‘सब को जूली का शरीर चाहिये और मैं सिर्फ प्यार चाहती हूं।’ काफी है।

दूसरों की जरूरत पूरी करते करते थक चुकी जूली अब जब कपड़ों की तरह अपने अतीत के अपराधबोध का वस्त्र अपनी रूह से उतारकर एक नये जीवन की शुरूआत की ओर बढ़ना चाहती है। तभी अचानक एक ज्वैलरी मॉल में जबरदस्त गोलीबारी होती है और इस गोलीबारी में जूली बुरी तरह घायल हो जाती है।

इस मामले की जांच एसीपी देवदत्त को सौंपी जाती है, जिसे लगता है कि गोलीबारी ज्वैलरी शॉप लूटने के मकसद से नहीं बल्कि जूली को मारने के इरादे से करवायी गई है। हालांकि, दूर दूर तक कोई जूली का दुश्मन नजर नहीं आता है।

देवदत्त को केस बंद करने के लिए उच्च अधिकारी का फोन आता है। लेकिन, देवदत्त जूली के बारे में अधिक से अधिक जानने के लिए जूली की मां जैसी अंटी से पूछताछ करता है, जो कहानी को एक खूबसूरत अंजाम तक लेकर जाती है।

फिल्म की कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे वैसे सिनेमा, अपराध और राजनीति का भयानक तथा मलीन चेहरा सामने आने लगता है। जूली 2 ऐसा मिरर है, जिसके सामने सिने जगत और राजनीति के ज्यादातर लोग खुद को खड़ा करना पसंद नहीं करेंगे।


हुनर होने के बावजूद भी जूली को फिल्मी दुनिया में कैरियर बनाने के लिए बोतल के भीतर की शराब की तरह सील मुक्त होते हुए निर्माता के भीतर उतरना पड़ता है। कामवासना की सर्दी में कांपने वाला हर कोई जूली के गरम तंदूर जैसे बदन की गरमाहट लेना चाहता है।

जूली का जीवन किसी त्रासदी से कम नहीं है। जूली 2 देखते हुए महसूस होता है कि ऐसी तन्हा लड़की के किरदार को राय लक्ष्मी से बेहतर शायद की कोई दूसरी अभिनेत्री निभा पाती। तब्बू जैसी गंभीरता और माही गिल्ल जैसी कामुकता राय लक्ष्मी को पर्दे पर सहज बनाती है। ज्वैलरी मॉल में हुए हमले के सीन राय लक्ष्मी के हावभाव देखने लायक हैं।

इसके अलावा रति अग्निहोत्री, आदित्य श्रीवास्तव, पंकज त्रिपाठी,​ निशिकांत कामत, देव गिल्ल और रवि किशन के किरदार फिल्म को और खूबसूरत बनाते हैं। इन सभी कलाकारों ने अपने किरदारों के साथ पूरा पूरा न्याय किया है।

दीपक ​शिवदासानी पूरी कसावट और सधे हुए निर्देशन के साथ ​फिल्म जूली 2 को बड़ी खूबसूरती से अंत तक पहुंचाते है। हालांकि, क्लाइमैक्स को थोड़ा सा लंबा लगता है। फिल्म जूली 2 मध्यांतर से पहले तक पूरी तरह साफ सुथरी जबकि मध्यांतर के बाद जुनूनी रोमांस और ग्लैमर है, जो कहानी की जरूरत है। लेकिन, अन्य​ हिंदी फिल्मों की तुलना में कुछ ज्यादा नहीं है।

काम वासना से जुड़े कुछ सीनों को बड़ी चालाकी और समझदारी के साथ फिल्माया गया है, ताकि दर्शकों को असहजता महसूस न हो। इसके अलावा म्यूजिक, ​स्क्रीन प्ले, सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूजिक पक्ष से भी फिल्म काफी मजबूत है।

ए प्रमाण पत्र के साथ रिलीज हुई जूली 2 न तो जिस्म की नुमाइश है, और नाहीं किंगफिशर का कैलेंडर। यह एक ऐसी फिल्म है, जो सिनेमा, राजनीति और अपराध के काले पक्ष को पर्दे पर बड़ी गंभीरता के साथ रखती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जूली 2 तो रंगीनियों में वीरानियों का मंजर है।

समीक्षक/कुलवंत हैप्पी