ग्यारह बारह साल का बच्चा चड्डी बनियान में खड़ा है। उसकी डॉक्टरी जांच हो रही है। इससे उसकी उम्र का अंदाजा लगाया जा रहा है। दूसरी ओर लेबनानी अधिकारी उन महिलाओं से पूछताछ कर रहे हैं, जो अन्य देशों में से लेबनान में काम की तलाश में गैर कानूनी तरीके से आई हैं। निर्देशक Nadine Labaki दोनों कहानियों को समांतर लेकर चलती हैं, जिनके सिरे कहीं न कहीं जाकर एक दूसरे से जुड़ते हैं।
कहानी का नायक जेन उम्र में ग्यारह बारह साल का है। मगर, जिंदगी की भाग दौड़, उठक पटक और खींचातानी ने उसको मानसिक तौर पर परिपक्व बना दिया है। जब पुलिस कर्मचारी जेन को कोर्ट रूम की ओर लेकर जाते हैं, तो उसके चेहरे के हावभाव एकदम किसी पेशेवर अपराधी जैसे हैं, उसका चेहरा भय मुक्त होता है, उसके चलने का स्टाइल उसकी उम्र से बिलकुल जुदा होता है।
जेन को पांच साल की सजा हो चुकी है क्योंकि उसने एक व्यक्ति को छुरा खोंप दिया था, जो रिश्ते में उसका जीजा लगता था। लेकिन, अदालत परिसर में खड़ा जेन अपने माता पिता के खिलाफ मुद्दकमा दायर करना चाहता है। उधर, लेबनान की उसी जेल में बंद, जिसमें ज़ेन बंद है, इथियोपियाई महिला राहिल, जो गैर कानूनी तरीके से लेबनान पहुंची है, जेन से अपने बच्चे के बारे में जाना चाहती है, जो महिला की गिरफ्तारी से पहले जेन के संरक्षण में होता है।
जेन अपने माता पिता के खिलाफ मुकद्दमा क्यों करना चाहता है? ज़ेन ने इथियोपियाई महिला के बच्चे के साथ क्या किया? इन सवालों के जवाब Nadine Labaki निर्देशित लेबनानी फिल्म Capernaum देखने पर मिल जाएंगे।
ज़ेन के किरदार में Zain Al Rafeea एक परिपक्व कलाकार की तरह अभिनय करते हुए नजर आते हैं। शुरू से अंत तक अपने किरदार को पकड़े रखते हैं और दर्शकों को प्रभावित करने में सफल रहते हैं। इथियोपियाई महिला राहिल का किरदार Yordanos Shiferaw ने बड़ी ईमानदारी के साथ अदा किया है। अन्य कलाकारों ने भी बेहतरीन काम किया है।
Nadine Labaki, जो फिल्म में जेन की वकील भी हैं, ने फिल्म का निर्देशन बहुत संजीदगी के साथ किया है। हर सीन को शूट करते हुए वास्तविकता का पूरा पूरा ख्याल रखा है।
जैसे एक सुबह ज़ेन की निगाह उसके बिस्तर के साथ ही बिछी हुई चादर पर पड़ती है, जहां उसकी बहन सोई हुई थी। उस चादर पर जेन को खून का दाग दिखता है। इसके बाद जब वो सड़क पर अपनी बहन के साथ खड़ा होकर जूस बेच रहा होता है, तो उसकी नजर उसकी बहन के कपड़ों पर पड़ती है, जिस पर रक्त लगा हुआ है। वो उसको पास के एक बाथरूम में लेकर जाता है, उसको बाथरूम में बिठाकर उसकी चड्डी को देता है, और उसको पीरियड के बारे में समझाता है और अपनी बनियान उतारकर उसको देता है, और जांघों के बीच रखने के लिए कहता है।
एक अन्य सीन जहां अपने बेटे से अलग होने पर इथियोपियाई महिला अपने स्तनों में उतरे दूध को अपने हाथों से अपने स्तनों को दबा दबाकर बाहर निकालती है। ऐसे बहुत सारे सीन हैं, जो वास्तविकता के काफी करीब हैं, जो बात को बड़े बेहतरीन तरीके से बयान करते हैं।
कोरोना के कारण भारत में तालाबंदी हुई और लाखों मजदूरों को पैदल ही घरों की ओर लौटते हुए देखा। ऐसे माहौल में जब Nadine Labaki की लेबनानी फिल्म Capernaum देखते हैं, तो हमको प्रवासी मजदूरों का, या उस समाज का दर्द महसूस होता है, जो कागजों में कहीं है ही नहीं।
Nadine Labaki के निर्देशन में बनी लेबनानी फिल्म Capernaum एक साथ कई मुद्दों पर बात कर जाती है, और वो भी बिना किसी मसाले के, ऐसे सिनेमा को सार्थक सिनेमा कहा जा सकता है। लेकिन, भारत में फिल्मों को केवल मनोरंजन तक सीमित कर दिया गया है।