भारतीय सिनेमा इस समय या तो बायोपिक बना रहा है या असल जीवन को करीब से दिखाने वाली फिल्मों का निर्माण कर रहा है। इन दिनों निर्माता निर्देशक अपनी फिल्मों को देशभक्ति की चांदनी में नहलाना नहीं भूलते हैं। छोटे बजट और बड़े सितारे लेकर ग्रामीण—शहरी पृष्ठभूमि पर मौजी और ममता के किरदारों को रचकर शरत कटारिया ने सुई धागा का निर्माण किया।
ममता और मौजी युवा दंपती एक साधारण परिवार से संबंधित है। मौजी शहर में नौकरी करता है। लेकिन, मौजी जल्द ही नौकरी छोड़ देता है। ममता, अपने पति मौजी को कपड़े सिलाई करने का आइडिया देती है।
मौजी ममता के कहने पर काम शुरू करता है। मौजी को काम नहीं मिलता। इस बीच मौजी की माँ बीमार पड़ जाती है। माँ की बीमारी मौजी और ममता के लिए रोजगार के रास्ते खोल देती है। मौजी के हाथ का बना मैक्सी पहनकर ममता की सास जब अस्पताल में चलती है तो वहां से मौजी और ममता को मैक्सी के काफी ऑर्डर मिलते हैं।
लेकिन, मौजी का बढ़ता रोजगार उसके पड़ोसी को चुभ जाता है, वो मौजी के घर महीनों से पड़ी अपनी सिलाई की मशीन उठाकर ले जाता है। इस तरह की मुश्किलों का सामना कर रहे ममता और मौजी को एक कपड़े बनाने वाली कंपनी में नौकरी लग जाती है। यहां भी ममता और मौजी अधिक दिन टिक नहीं पाते हैं, अंत दोनों नौकरी छोड़ कर अपनी खुद की पहचान बनाने के लिए संघर्ष करने लगते हैं।
ज्यादातर हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह ममता और मौजी की कहानी का भी सुखद अंत होता है। लेकिन, ममता और मौजी की कहानी को चलचरित्र में देखने और महसूस करने का अपना ही आनंद है।
शरत कटारिया का निर्देशन काबिल—ए—तारीफ है। शरत कटारिया ने स्क्रीन प्ले में जान डालने के लिए कलाकारों से बेहतर काम लिया है। फिल्म का संपादन भी बड़ी संजीदगी के साथ किया गया है। एक मध्यवर्गीय परिवार की कहानी को स्क्रीन प्ले, अभिनय और चुटीले संवाद बेहतरीन बनाते हैं।
मौजी के किरदार में वरुण धवन कमाल का अभिनय करते हुए दिखे। अनुष्का शर्मा ने मुख्य किरदार ममता की जिम्मेदारी को बाखूबी समझा और निभाया। मौजी के पिता के किरदार में रघुबीर यादव का अभिनय सराहनीय है। मौजी की मां के किरदार में यामिनी दास का अभिनय अद्भुत है। दोनों कलाकारों की कॉमिक टाइमिंग सीनों और संवादों को बेहतरीन बनाती है।
आम आदमी की सफलता को पर्दे पर गुरू, पैडमैन जैसी फिल्मों के माध्यम से भी कहा गया है। लेकिन, शरत कटारिया ने मध्यवर्गीय परिवार के जीवन को कहानी में बड़ी बारीकी के साथ पेश किया है। ममता और मौजी की कहानी फिल्मी न होकर भारत में रहने वाले ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी लगती है।
सुई धागा की कहानी दर्शकों से तालमेल और संबंध बनाने में सफल होती है। सुई धागा दिखाई जाने वाली नोकझोंक और परिवार सदस्यों का एक दूसरे के प्रति मोह प्यार फिल्म को हकीकत के करीब खड़े होने में मदद करता है।
बैकग्राउंड म्यूजिक और सिनेमेटोग्राफी बेहतरीन है। कहानी को बेहतर ढंग से कहने के लिए फिल्म में अधिक गाने नहीं डाले गए, जो एक अच्छी बात है। इस फिल्म को परिवार सदस्यों के साथ बैठकर बिना किसी झिझक के देखा जा सकता है।
कुलवंत हैप्पी