लगभग 6 वर्ष की अवधि के अथक प्रयासों के बाद बन सकी आई एम नॉट दलित
मुम्बई। ‘मैं दलित हूँ’ या ‘हम दलित हैं’ – जैसे वाक्य भारत के आज के राजनैतिक माहौल में बहुत ही विस्फोटक हैं। इसके विपरीत किसी दलित समाज के व्यक्ति का यह कहना कि- “मैं दलित नहीं हूँ’ आज के संवेदनशील भारतीय राजनैतिक माहौल में लगभग असंभव है।
1997 में, मुंबई की 1.84 करोड़ लोगों की अनजान भीड़ में एक ऐसे जागरूक व्यक्ति की खोज वृत्तचित्र निर्माता ‘कृष्णात्रेय’ के लिए एक सहज कार्य नहीं था। मुंबई आगमन के कुछ समय बाद ही, सर्वप्रथम 1997 में, मुंबई के घाटकोपर स्थित रमाबाई कालोनी की दलित बस्ती में पुलिस की गोलाबारी से 11 नागरिकों की मौत के एक दिल दहलाने वाले समाचार ने वृत्तचित्र निर्माता को झकझोर कर रख दिया था। महाराष्ट्र में चल रही दलित गतिविधियों और अंबेडकरवादी आंदोलनों से संबंधित जानकारी जुटाने का विचार तभी उनके मन में कौंधा। शोध के दौरान पहली बार उन्हें पता लगा कि दलित गतिविधियों और अंबेडकरवादी आंदोलनों से संबंधित ऑडियो-वीडियो और मीडिया कवरेज बहुत कम है या न के बराबर है अथवा इधर उधर असमन्वित बिखरा पड़ा है। यह वृत्तचित्र एक प्रकार से दलित गतिविधियों और अंबेडकरवादी आंदोलनों से संबंधित प्रलेखो को बटोर कर एक प्रकार का पुरालेख (ऐतिहासिक अभिलेखागार) तैयार करने का प्रयास है। लगभग 6 वर्ष की अवधि के अथक प्रयासों के बाद इस प्रयास की पहली कड़ी (संस्करण) के रूप में यह वृत्तचित्र सामने आया है। इसके पश्चात भी लगातार कई और अंक सामने आते जाएंगे।
दलित गतिविधियों और अंबेडकरवादी आंदोलनों से संबंधित सटीक. अधिकृत जानकारी के लिए निर्माता द्वारा मुंबई की भीड़-भड़क्के के बीच एक ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी थी जो एक समर्पित अंबेडकरवादी, अति शिक्षित, स्वतंत्र विचारधारा वाला और महाराष्ट्र के अत्यंत पिछड़े गाँव से मुंबई तक संघर्ष करके पहुंचा हो तथा जो महाराष्ट्र के नामी राजनेताओं के संपर्क में हो। इस वृत्तचित्र की कहानी ‘डॉ पी.आर. खंदारे’ को लेकर आगे बढ़ती है। 1997 के परिदृश्य से प्रारंभ होते हुए यह फिल्म राजा ढाले, जे वी पवार, अविनाश म्हातेकर जैसे 1972-1974 के दौर के बयोवृद्ध दलित पैंथर और अंबेडकरवादी नेताओं के साथ साक्षात्कार कराती है तथा दलित पैंथर से संबंधित गतिविधियों पर प्रकाश डालती है। जोगेंद्र कवाडे, नामदेव ढसाल, रामदास अठावले, भाई संघारे, कमलेश यादव तथा अन्य कई अंबेडकरवादी आंदोलनों से जुड़े लोगों लोगों के माध्यम से कुछ दिलचस्प बातों को सामने लाती है।
भारतीय संविधान का निर्माण अंबेडकरवादी लोगों के लिए सदैव बहुत अहम विषय रहा है। यह वृत्तचित्र भारतीय संविधान बनने की पूरी प्रक्रिया पर बहुत ही सहज और मनोरंजक तरीके से ऐतिहासिक यात्रा करवाती है और बाबा साहेब की भूमिका पर अधिकृत जानकारी प्रस्तुत करती है। गांधी की हत्या के मार्मिक घटना के ऐतिहासिक दृश्यों को बखूबी जीवित करते हुए ब्राहमण विरोधी दंगों पर प्रभावशाली तरीके से प्रकाश डालने में यह फिल्म पूर्णतया सफल होती है। यह वृत्तचित्र भीमा कोरेगांव तथा महार बटालियन का इतिहास भी रोचक ढंग से उजागर करता है। इसके साथ साथ ‘जय भीम’ के नारों पर हो रही राजनीति की चर्चा करते हुए मार्क्सवाद तथा अंबेडकरवाद के अंतर पर अंबेडकरवादी नेताओं की प्रभावशाली तार्किक टीका टिप्पणी भी सुनने को मिलती है। यह फिल्म कुछ दिशाहीन अंबेडकरवादी समूहों द्वारा महात्मा गांधी की अतार्किक कटु आलोचना का विश्लेषण भी करती है।
दिल्ली के जे.एन.यू के हाल ही में हुए प्रकरण को स्पर्श करती हुई यह डाक्यूमेंट्री रोहित वेमुला से संबंधित घटना को दलित आंदोलन के ऐतिहासिक क्रम से जोडती है। यह फिल्म अमानवीय खैरलांजी हत्या कांड की वीभत्सता को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से सामने लाते हुए दिल्ली में हुए ‘निर्भया बलात्कार’ तथा ‘खैरलांजी बलात्कार’ के संबंध मीडिया की पक्षपात पूर्ण प्रवृत्ति पर सवाल उठाते हुए दलित नेताओं के रोष को भी प्रकट करती है।
भारत की जातीय व्यवस्था, उंच-नीच के भेदभाव वाली मानसकिता के कथानक पर बनी बहुचर्चित हिंदी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ की फिल्मों की चर्चा इस वृत्तचित्र में बहुत रोचक बन पड़ी। इसी की कड़ी में रिकोर्ड तोड़ सुपरहिट मराठी फिल्म ‘सैरात’ को जामखेड के खर्डा में हुई जातिवादी हिंसा से जोड़ते हुए डाक्यूमेंट्री को एक रोचक दिशा दी गई है।
बाबा साहेब अंबेडकर की वर्तमान पारिवारिक पृष्ठभूमि, राजगृह, चैत्यभूमि, अंबेडकर भवन, बुद्ध भूषन प्रिंटिंग प्रेस, सिद्धार्थ होस्टल, खालसा कॉलेज, दादर गुरुद्वारा आदि स्थलों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाने से लेकर आंबेडकर भवन के ध्वस्त होने तथा विरोधस्वरूप हुए आन्दोलन के सजीव दृश्यों के सामने लाकर यह वृत्तचित्र अपने अभिलेखागार बनाने के संकल्प की पुष्टि भी करता है। प्रकाश अंबेडकर, भीमराव अंबेडकर, आनंद आंबेडकर के साथ मीराताई अंबेडकर भी वृत्तचित्र अपनी बातें रखते दिखाई देते हैं।
आरक्षण की दौड़ में लगे सभी समूहों की मांगों से संबंधित विसंगतियों पर सफलता पूर्वक ध्यान आकर्षित करते हुए बाबा साहेब के नाम से होने वाली राजनीति पर सवाल उठाते हुए अंततः आरक्षण की आवश्यकता कहाँ है? इस बात पर यह वृत्तचित्र उपसंहार करता है…. “ मैं दलित नहीं हूँ” की घोषणा वृतचित्र आई एम नॉट दलित — डॉ. पीआर खंदारे को एक सार्थक रूप देती है तथा सभी जागरूक लोगों को आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण के लिए प्रेरित भी करती है।