अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की बहुप्रतीक्षित फिल्म गुलाबो सिताबो अमेजॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज हो चुकी है। फिल्म का निर्देशन शूजित सरकार ने किया है जबकि फिल्म लेखन का जिम्मा जूही चतुर्वेदी ने संभाला है। लखनऊ शहर की पृष्ठभूमि पर रची गुलाबो सिताबो का केंद्र फतिमा महल है।
लगभग एक सदी पुराने फतिमा महल में मिर्जा, उनकी बेगम और कुछ किरायेदार रहते हैं। मिर्जा लालची किस्म का आदमी है। महल का मालिक होने के बावजूद भी चोरी चक्कारी करने से परहेज नहीं करता। मिर्जा और बांके की बिलकुल नहीं बनती, क्योंकि बांके अपने परिवार के साथ लंबे समय से महल में रह रहा है, और मिर्जा को बहुत कम किराया देता है। पिछले कुछ महीनों से तो किराया ही नहीं दिया।
शौचालय की दीवार गिरने के कारण दोनों की लड़ाई पुलिस स्टेशन तक पहुंच जाती है। पुलिस स्टेशन में पुरातत्व विभाग से जुड़ा एक अधिकारी 100 पुराने महल की बात सुनकर महल की जांच पड़ताल करने में जुट जाता है। उधर, पुलिस मिर्जा को पुलिस स्टेशन से यह कहते हुए लौटा देती है कि यह मामला सिविल कोर्ट का है। ऐसे में मामले में एक वकील भी शामिल हो जाता है।
कहानी में अब मिर्जा और बांके के अलावा तीन और किरदार सक्रिय हो जाते हैं, बांके की बहन, पुरातत्व अधिकारी और वकील। यहां मिर्जा अपना फायदा देखता है, तो वहां बांके और बांके की बहन अपना फायदा देखते हैं। हर कोई अपने स्तर पर जुगाड़ लगा रहा है।
इस कहानी में रोचक मोड़ उस समय आता है, जब फतिमा महल के सारे किरायेदार गलियारे में खड़े हैं और मिर्जा आंगन में। पुरातत्त्व विभाग वाले किरायेदारों को घर छोड़ने के लिए सूचित कर रहे हैं और किरायेदार खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। बीच में, मिर्जा बताता है कि उसने महल बहुत बड़े बिल्डर मुनमुन सेठ को बेच दिया है। इतने में मुनमुन सेठ भी अपने अमले के साथ महल में पहुंच जाता है। इस बीच बेगम की दासी छत से बताती है कि बेगम चली गई। बेगम चली गई का मतलब हर कोई ‘मर गई’ समझ रहा है जबकि ऐसा बिलकुल नहीं। बेगम के रूम से एक पत्र मिलता है, जिसको पढ़कर हर किसी के होश उड़ जाते हैं। हर किसी के पांव से जमीन खिसक जाती है।
इस पत्र में ऐसा क्या है, जो सब के होश उड़ा देता है? पुरातत्व विभाग, मुनमुन सेठ और किरायेदारों का क्या होगा? ऐसे तमाम सवालों के जवाब गुलाबो सिताबो देखने पर मिल जाएंगे।
अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना का अभिनय बेहतरीन है, पर, किरदार प्रभावहीन नजर आते हैं। आयुष्मान खुराना की बहन के किरदार में सुष्टि श्रीवास्तव, वकील के रूप में बृजेंद्र काला और पुरातत्व अधिकारी के किरदार में विजय राज और बेगम के किरदार में फारुख़ जफर का अभिनय अच्छा है।
कहानी की शुरूआत मनोरंजन और रोचक है, पर, कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है, तो ठंडी पड़ने लगती है। कहानी काफी सतही सी लगती है। किरदार भावनाहीन है, जो दर्शकों को अपने साथ जोड़ नहीं पाते। जूही चतुर्वेदी गुलाबो सिताबो के मार्फत पर लालची समाज को उजागर करने की कोशिश करती हैं।
साथ ही, इस कहानी में मनोरंजन का तड़का लगाने के लिए बांके की बहन को मॉर्डन सोच की दिखाती हैं, जिसके लिए यौन संबंध बनाना मौज मस्ती से अधिक कुछ नहीं है। इतना ही नहीं, वो अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी के साथ भी यौन संबंध बनाने के लिए तैयार है। हालांकि, सूजित सरकार ने फिल्म में यौन संबंधों को जगह नहीं दी, बस संकेत छोड़े हैं। आप इस फिल्म को परिवार में बैठकर सहजता से देख सकते हैं।
शूजित सरकार का निर्देशन बेहतरीन है, पर, फिल्म को चुस्त संपादन की सख्त जरूरत थी। फिल्म के संवादों पर भी बेहतर काम नहीं हुआ। गुलाबो सिताबो का प्लॉट खूबसूरत था, एक मजेदार कॉमेडी या व्यंग प्रधान फिल्म निकलकर आ सकती थी। फिल्म का अंत दर्शकों को संतुष्ट नहीं करता क्योंकि फिल्म में काफी झोल है। फिल्म सतही होने के कारण दर्शकों को किसी भी किरदार के साथ हमदर्दी नहीं होती पाती और नाहीं किसी के साथ हुए इंसाफ पर खुशी।
यदि आप हल्की फुल्की पैसेंजर ट्रेन की गति से चलने वाली फिल्म देखना पसंद करते हैं तो आप गुलाबो सिताबो को एक दफा जरूर देख सकते हैं, यदि आपके पास कोई अन्य बेहतरीन फिल्म देखने का विकल्प नहीं है।