‘मैरी कॉम’ की सफलता के बाद उमंग कुमार ने बातौर निर्देशक एक और बायोपिक फिल्म सरबजीत बनाने की सोची, जो रिलीज हो चुकी है। फिल्म की कहानी सरबजीत के जीवन से जुड़ी है, जो पाकिस्तानी जेल में बंद था और उस पर पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप था। मगर, उसके परिवार ने अंत तक उसको रिहा करवाने का प्रयास किया और इस प्रयास की अगुवाई उनकी बहन ने की। परिवार और सरबजीत हमेशा स्वयं को निर्दोष मानता था। सरबजीत के मीडियाई बयानों के अनुसार, सरबजीत शराब के नशे में सीमा पार कर गया था।
इस कहानी को सुनहरे पर्दे पर लाने के लिए उमंग कुमार और उनके सितारों ने काफी मेहनत की, विशेषकर रणदीप हुड्डा। इस फिल्म को बनाने के लिए सरबजीत के परिवार से सहमति तक जुटाई गई। हालांकि, फिल्म सरबजीत को व्यावसायिक बनाने के लिए कहानी में थोड़ा सा कल्पना का मसाला भी डाला गया है। किसी भी बायोपिक फिल्म के लिए उसका प्रस्तुतिकरण महत्वपूर्ण होता है क्योंकि कहानी तो दर्शकों के सामने होती ही है।
उमंग कुमार ने फिल्म का नाम सरबजीत रखा, मगर, पूरी कहानी दलबीर कौर के संघर्ष पर आधारित है। पोस्टरों में भी दलबीर कौर छाई हुई थीं। दलबीर कौर के किरदार में बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री ऐश्वर्या राय को चुना, जो नि:संदेह बेहतरीन अदाकारा हैं, मगर, कुछ जगहों पर ऐश्वर्या का जल्वा फीका पड़ता नजर आएगा। ऐश्वर्या राय ने किरदार में ढलने की पूरी कोशिश की, मगर, चूकती हुई नजर आती हैं। पंजाबी लहजे में बात करना ऐश्वर्या के लिए कठिन पड़ता हुआ नजर आया।
हालांकि, बॉलीवुड युवा अभिनेत्री ऋचा चढ्डा सरबजीत कौर की पत्नी के किरदार में काफी जंच रही हैं। रणदीप हुड्डा ने अपने किरदार को बेहतरीन तरीके से पेश किया। दर्शन कुमार का अभिनय काफी हद तक अच्छा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि निर्देशक उमंग कुमार ने एक अच्छी कोशिश की। मगर, उमंग कुमार को अधिक मेहनत करने की जरूरत थी और फिल्म पूरी तरह महिला किरदार पर निर्भर नहीं करनी चाहिए थी। अच्छा होता यदि सरबजीत और अन्य पहलूओं पर भी गहन शोध होती।
फिल्म देखते हुए आपको महसूस हो सकता है कि फिल्म का नाम सरबजीत नहीं दलबीर कौर होना चाहिए था, क्योंकि फिल्म में अधिक समय तो दलबीर कौर छाई रहती हैं। वैसे असल जीवन में भी सरबजीत को दुनिया की नजर लाने वाली दलबीर कौर ही हैं।
फिल्म का संगीत बेहतरीन है। कई कमी पेशियों के बावजूद भी सरबजीत एक बेहतरीन फिल्म है, विशेषकर आज के समय की फिल्मों की तुलना में। समीक्षक की अपनी एक दृष्टि होती है। इसलिए हमारा नजरिया सब पर लागू नहीं होता। हमारी तरफ से फिल्म को दो से ढ़ाई स्टार दिए जाते हैं।