मदारी एक आम आदमी की कहानी, जिसका बेटा एक हादसे में मारा गया। मगर, यह आम आदमी अन्य आम आदमियों जैसा नहीं, जो नसीब, किस्मत की बात कह कर घर बैठ जाते हैं।
ये उस आम आदमी की कहानी है, जो हादसे के जिम्मेदार लोगों की शिनाख्त करना चाहता है, जो सोए हुए सिस्टम को जगाना चाहता है। आम आदमी निर्मल कुमार ‘इरफान ख़ान’ इस अभियान को अंजाम तक लेकर जाने के लिए मुख्य मंत्री के बेटे को अगवा कर लेता है। इसके बाद पूरा सिस्टम निर्मल कुमार के पीछे लग जाता है।
निर्मल कुमार अपने अभियान को अंजाम तक पहुंचा पाता है या फिर सिस्टम के हाथों मारा जाता है। देखने के लिए मदारी जरूर देखें। मदारी किसी राजनीतिक पार्टी के विरोध में या पक्ष में नहीं, बल्कि ये तो भारतीय प्रबंधन प्रणाली पर जबरदस्त कटाक्ष है।
कबाली की चमक में मदारी का खेल थोड़ा सा फीका जरूर पड़ गया। मगर, इरफान ख़ान की अदाकारी के दीवाने सिस्टम पर प्रहार करती फिल्म को देखना पसंद करेंगे। निशिकांत कामत का निर्देशन बेहतरीन है। हालांकि, कहानी धीमी गति से आगे बढ़ती है। रितेश शाह ने कहानी के मार्फत आम होने वाले हादसों को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया है। हालांकि, इंटरवल के बाद कहानी थोड़ी सी लचीली और लंबी लगने लगती है। यहां पर दर्शकों को कसावट की कमी महसूस हो सकती है। संगीत फिल्म के हिसाब से अच्छा है। स्क्रीनप्ले भी बेहतरीन है।
इरफान ख़ान, जिम्मी शेरगिल जैसे उम्दा कलाकार, निशिकांत कामत जैसा उम्दा निर्देशक हो तो एक बेहतरीन फिल्म न बने, कैसे हो सकता है। इरफान ख़ान अभिनेता है, जो अदाकारी में बेजोड़ है, हालांकि, सुपरस्टार ख़ान या रजनीकांत नहीं कि एक गंभीर विषय पर बनी फिल्म पर लोगों को बेहताशा भीड़ खींच पाएं। हां, इरफान ख़ान की अदाकारी इतना दम तो रखती है कि सिनेमा हाल में पहुंचे लोगों से अदाकारी के लिए तालियां जरूर बजवा सकती है।
यदि आप उम्दा अदाकारी और सामाजिक सारोकार की फिल्में देखना पसंद करते हैं तो आपके लिए मदारी इस सप्ताह एक खरा सौदा साबित हो सकती है। हमारी तरफ से फिल्म को पांच में से ढाई सितारे दिए जाते हैं। हालांकि, यह फिल्म समीक्षक की अपनी राय है, जो हर किसी पर लागू नहीं होती क्योंकि हर किसी की अपनी अपनी पसंद होती है।